ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ रहे एक भारतीय छात्र और एक पाकिस्तानी छात्रा दर्शाते हैं कि किस तरह उनके देशों की मिडिया एक ही मुद्दे का अपनी-अपनी तरह से आवरण कर रहीं हैं।
अगर भारत और पाकिस्तान के नाजुक संबंधों को परिभाषित करने का प्रयत्न किया जाये , तो यह देखा जा सकता है की हमारे दो देशों के लोगों में हमेशा से ही क्रिकेट और युद्ध में ‘स्कोर’ रखने की प्रवृति रही है।अब तक क्रिकेट और युद्ध हमारी चेतना और मीडिया में अपनी अलग-अलग जगह बनाये हुए थे। लेकिन 6 जनवरी 2013 को वे एक दुसरे के इतने करीब आ गए, कि हम यह सोचने के लिए मजबूर हैं कि क्या हम कभी उन्हें फिर से अलग परिप्रेक्ष्य में देख पाएंगे। 6 जनवरी 2013 से जो घटनाओं का क्रम शुरू हुआ, उससे यह प्रतीत होता है कि हमारे दोनों देश विनाशकाल से बहुत दूर नहीं हैं। इस लेख में हमने यह बताने का प्रयत्न किया है कि किस तरह दोनों देशों की मीडिया और सरकारें एक ही मुद्दे को अलग-अलग दृष्टिकोण से देख रहीं है और किस तरह से वह दृष्टिकोण हमें पप्रभावित कर रहा है।
6 जनवरी 2013 को, जिस दिन भारत और पाकिस्तान के क्रिकेट खिलाड़ी एक रोचक क्रिकेट मैच खेल रहे थे, पाकिस्तानी प्रेस के मुताबिक कुछ भारतीय सैनिकों ने सीमा पार कर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के सावन पात्रा ज़िले में , पाकिस्तानी सेना की एक चौकी पर हमला किया और उस हमले में असलम नाम का एक पाकिस्तानी सैनिक मारा गया। उस घटना के तुरंत बाद, पाकिस्तानी सरकार ने घटना की जानकारी देते हुए एक फरमान जारी किया, और भारतीय उपराजदूत को बुलावा देकर अपना विरोध प्रकट किया।
8 जनवरी 2013 को भारतीय सेना ने भी एक फरमान जारी करते हुए यह बताया कि उसी दिन पाकिस्तानी सेना के कुछ सिपाहियों ने भारतीय सीमा पार कर घुसपैट की, और भारतीय सेना ने जवाबी हमला कर उन्हें वापस जाने के लिये मजबूर कर दिया। सेना ने यह भी बताया की उस हमले में सेना के दो जवान, लांस नायक सुधाकर सिंह और लांस नायक हेमराज, शहीद हो गए।
9 जनवरी 2013 के दिन, दैनिक भास्कर ने ‘फ्रंट पेज’ पर रिपोर्ट किया – “पाक ने बर्बरता की सीमा लांघी- भारतीय सीमा में घुसकर दो सैनिकों की हत्या, सिर काट कर ले गए“. टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने भी इस खबर का शीर्षक कुछ वैसा ही रखा। टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने अपनी खबर में कारगिल युद्ध का ज़िक्र करते हुए कप्तान सौरभ कालिया के बारे में बताया की किस तरह कारगिल युद्ध में पाकिस्तानी सेना ने कप्तान कालिया को यातनाएं दीं थी और उनके शरीर को उसी अवस्था में लौटाया था। 8 जनवरी की श्याम को भारत के विदेश मंत्री श्री सलमान खुर्शीद टी.वी. (अन.डी.टी.वी) पर आये और पाकिस्तान को उपयुक्त जवाब देने की बात की। बी .जे .पी। के श्री. अरुण जेटली ने भी भारत सरकार से यह निवेदना की कि भारत सरकार पाकिस्तान से हो रही शांति-वार्ता के बारे में पुन : विचार करे , पाकिस्तान को हर संभव जवाब देने के बारे में सोचे, और पाकिस्तान को शर्मिंदा करने की मुहीम छेड़ें। एस घटना के बाद, भारत सरकार ने भी भारत में पाकिस्तान के राजदूत को बुलावा भेजकर घटना की कड़ी निंदा की। अगले दो-तीन दिनों तक टी.वी. न्यूज़ चैनल सिर काटने की घटना का अन्वेषण करते रहे और पाकिस्तान से युद्ध करने की बात का भी जिक्र किया। अख़बारों में भी यह घटना सुर्कियों में रही और टीवी चैनल शहीदों के परिवारों की स्तिथि दिखाते रहे। जब से 2003 में ‘युद्ध- विराम’ की घोषणा हुई, तब से दोनों देशों से युद्ध- विराम की अवहेलना करने की खबरें सामने आईं हैं। लेकिन सिर काटने की एस घटना को भारत में पहले की घटनाओं से अलग देखा जा रहा है। 26/11 का आतंकवादी हमला अभी भी भारत के लोग भुला नहीं पाए हैं, और सिर काटने की एस घटना को जिस तरह से भारतीय मीडिया में दिखाया और रिपोर्ट किया गया, आम आदमी के मन में पाकिस्तान के प्रति आक्रोश की भावना आज अपनी चरम सीमा पर है।
6 जनवरी 2013 की घटना का भारतीय प्रेस में विस्तार से रिपोर्ट नहीं किया गया था। पाकिस्तानी मिडिया ने भी 6 जनवरी की घटना का कुछ ख़ास आवरण नहीं किया। लेकीन पाकिस्तान के जियो टीवी पर असलम के मारे जाने के बाद उनके परिवार की स्थिति दिखाई गयी। उधर 9 जनवरी तक भारतीय मीडिया में 8 जनवरी की घटना और पाकिस्तानी सेना की ‘बर्बरता’ ने सारा ध्यान अपनी ओर केन्द्रित कर लिया था। जब पाकिस्तान पर ‘बर्बरता’ का आरोप लगाया गया, तब से पाकिस्तानी मीडिया में 6 जनवरी की घटना का महत्व बढ़ गया। वहां उस घटना को ही मामले की जड़ माना जाने लगा। पाकिस्तानी सेना के एक वरिष्ठ अफसर ने भारत पर दुष्प्रचार करने का आरोप लगाया। भारत ओर पाकिस्तान के रिश्तों में इस तरह के आरोप और प्रत्यारोप हमेशा से ही लगाये जाते रहे हैं। इस बार भी दोनों देशों की प्रेस में 2003 ‘युद्ध- विराम’ की पुराने उल्लंघनों का ज़िक्र होता रहा।
देखा जाये तो पाकिस्तान में हो रहीं कुछ अन्य राजनितिक घटनाओं के कारण पाकिस्तानी प्रेस में भारत-पाक रिश्तों से जुड़ी इन घटनाओं को कुछ ख़ास महत्व नहीं दिया गया। ‘डौन’ नामक अंग्रजी भाषा का अखब़ार शायद पाकिस्तान का एक इकलौता अखब़ार था जिसने निरंतर इन घटनाओं से सम्बंधित रिपोर्टें छापी। उधर पाकिस्तानी सरकार ने एक के बाद एक फरमान जारी कर 8 जनवरी की घटना में पाकिस्तान का हाथ न होने की बात कही। पाकिस्तान की विदेश मंत्री हीना रब्बानी ख़ार ने मामले की जांच ‘संयुक्त राष्ट्र’ से करवाने की बात भी राखि। लेकिन पाकिस्तान ने 2013 की इन घटनाओं को कारण बताते हुए पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर और जम्मू -कश्मीर के बीच की बस-सेवा और व्यापार रोकने का फ़ैसला ले लिया। उधर भारत-पाक के बीच बाक़ी क़रार पहले जैसे ही रहे ओर उन्हें नहीं छेड़ा गया।
पाकिस्तान में हुए बम धमाके, और अन्य राजनितिक गतिविधियों के कारण पाकिस्तानी मिडिया ने भारत-पाक संघर्ष के इस ‘एपिसोड’ को उतना महत्व नहीं दिया गया जितना महत्व इसे भारतीय मीडिया ने दिया। यह दर्शाता है की किस तरह मिडिया उन्हीं मुददों को ज्यादा महत्व देती है, जो मुद्दे उनके देशों में ज्यादा सनसनीख़ेज हो सकते हैं। जब 10 जनवरी 2013 को एक दूसरा पाकिस्तानी सैनिक मारा गया तभी भी, बम धमाकों की घटनाओं की वजह से, पाकिस्तानी मीडिया के कुछ चुनिंदा उर्दू और अंग्रजी अखबारों ने ही 10 जनवरी की घटना को रिपोर्ट किया। उधर पाकिस्तानी सरकार ने भारतीय राजदूत को बुलाकर 10 जनवरी की घटना की निंदा की।
उधर भारत में 8 जनवरी की घटना, अभी भी सुर्कियों में थी। जब पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र से जाँच करने की बात कही तब भारत ने उससे साफ़ इंकार कर दिया। भारत कश्मीर मुद्दे पर कोई ऐसा फैसला नहीं चाहता जो किसी तीसरी पार्टी द्वारा प्रेरित हो।
भारत और पाकिस्तान में प्रेस अक्सर देशभक्ति का स्वर अपनाते हैं। इसके बावजूद, इस स्थिति को मीडिया युद्ध के रूप में देखना भ्रामक हो सकता है। दोनों पक्षों के पत्रकार नियमित रूप से एक दूसरे के साथ सहयोग करते हैं और ‘साफमा’ के ज़रिये मजबूत संबंध बनाए हुए हैं। विशेष रूप से, ऐसा लगता है कि इस मामले में पाकिस्तानी मीडिया की जनता की राय को आकार देने में कोई विशेष भूमिका नहीं रही है। भारत में भी मीडिया अब एस मुद्दे को एक संतुलित दृष्टिकोण से देख रही है। दोनों पक्ष यह भली भांति जानते हैं कि युद्ध दोनों (परमाणु हथियारों से लैस) देशों के लिए विनाशकारी होगा। अगर युद्ध हुआ तो कुछ ही षणों में वर्षों का विकास धुएं में उड़ सकता है।
इस पृष्ठभूमि के साथ, ‘हिन्दू’ (अंग्रेजी में एक प्रमुख भारतीय समाचार पत्र) में इस घटना का वर्णन सबसे अलग और सबसे महत्व पूर्ण है। ‘हिन्दू’ के मुताबिक एक बुजुर्ग महिला सितम्बर 2012 से बार – बार नियंत्रण रेखा के आर-पार आना-जाना कर रही थी। इस कारण से भारतीय सेना उस क्षेत्र की बेहतर निगरानी करना चाहती थी (क्यों की उस महिला की तरह आतंकी भी उस रास्ते के द्वारा सीमा पार कर सकते थे)। उस घुसपैठ को रोकने के लिए भारतीय सेना ने उस जगह पर चौकीयों का निर्माण शुरू किया। पाकिस्तान के मुताबिक उस तरह का निर्माण करना युद्ध-विराम की शर्तों का उल्लंघन था। जब पाकिस्तानी सैनिकों के कहने पर भी भारतीय सैनिकों ने वह निर्माण नहीं रोका, तब पाकितानी सैनिक गोलाबारी करने लगे। यह गोलाबारी दोनों देशों की तरफ से रुक- रुक कर 8 जनवरी की घटना के दिन तक चालती रही, और अभी भी जारी है । गौरतलब है की ‘हिन्दू’ ने अपनी रिपोर्ट में यह भी लिख़ा (बिन पुष्टि किये) कि भारतीय सेना भी अतीत में पाकिस्तानी सैनिकों का सिर कलम किया था।
हालाकि युद्ध में शरीर की विकृति करना युद्ध के नियमों के खिलाफ है , इस तरह की घटनाएँ दुनिया भर के युद्धों में होती रहीं हैं। हमारी चिंता का मुख्य कारण इस तरह के अंगभंग की अवैधता नहीं है, बल्कि भारत और पाकिस्तानी सेनाओं के जवानों का एक दुसरे के प्रति मानवता की भावना का न होना, होना चहिये। जब भारत में आतंकवादी हमलों में लोग मारे जाते हैं, तब आम पाकिस्तानियों के मनों में किसी प्रकार की वेदना नहीं होती। ठीक उसी प्रकार जब पाकिस्तान कि स्थिति हर दिन बत से बत्तर हो रही है और लोग मारे जा रहें , आम हिन्दुस्तानियों को भी इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। यह दर्शाता है की दोनों देशों के आम नागरिक भी ऐक-दुसरे के प्रति मानवता की कोई भावना नहीं रखते। इसका क्या कारण हो सकता है? विभाजन, या फिर 1965 और 1971 के युद्ध ? क्या कश्मीर ही एकमात्र कारण है? क्या कभी हम इस हिंसा के चक्रव्यूह से बाहर निकल पाएंगे? क्या मीडिया ऐसी घटनाओं का वर्णन करते समय एक संतुलित दृष्टिकोण रख सकती है ? क्या यह मसला बातचीत से नहीं सुलज सकता था? तो, सवाल यह नहीं होना चहिये कि ‘यह किसने शुरू किया’?, बल्कि सवाल यह होना चहिये , ‘किस्में इसे खत्म करने का साहस है’?
मार्ज पीएर्स ने कहा है- या तो हम इतिहास से सीख लेकर आगे बढ़ें , या फिर इतिहास में फंस कर हमेशा वहीं के वहीं रहें ।
ज़ाहरा शाह और देबान्शु मुख़र्जी
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देबान्शु ऑक्सफ़ोर्ड में विधि के छात्र हैं। ज़ाहरा ऑक्सफ़ोर्ड में इतिहस की छात्रा हैं।