यदि हमारा पहला मसौदा मूलभूत सिद्धांत है, तो हमारा अंतिम मसौदा एक तरह का महा – सिद्धांत है। यह हमे कहता है कि मुक्त अभिव्यक्ति पर सभी सीमाओ को चुनौती देने के लिए स्वतंत्र है। यह एक प्रक्रियात्मक दावा है। किसी भी प्रतिबंध के बारे में पूरी तरह सूचना पाने के उपरांत, उसे सही पाने पर हम लड़ना बंद कर सकते हैं। या हम इसे निरस्त कर सकते हैं तथा परिणामों को झेल सकते हैं। जहां तक संभव हो स्वतंत्रता की सीमा तक पहुंचने के लिए एक पारदर्शी प्रक्रिया होनी चाहिए।
हमें मुक्त अभिव्यक्ति की सभी सीमाओं को चुनौती देने का अधिकार होना चाहिए। लेकिन हमने कुछ पृष्ठभूमि का चयन किया है जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा, जनादेश तथा नैतिकता – ये सब अचानक से नहीं चुने गए हैं। ये वे क्षेत्र हैं जिसका सहारा लोकतांत्रिक तथा अलोकतांत्रिक दोनो ही सरकारें हमारी अभिव्यक्ति को दबाने के लिए उठाए गए कदमों को सही ठहराने के लिए करती है। जबकि ये ही तीन ऐसी पृष्ठभूमि है जिन्हें नागरिक तथा राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय नियमपत्र की धारा 19 स्पष्ट रूप से (जन स्वास्थ्य के सहित) प्रतिबंधों को सही ठहराने के लिए प्रयोग करती है – जब तक कि ये कानून द्वारा दिए गए हैं तथा आवश्यक हैं। लेकिन यह निर्णय कौन लेगा कि क्या आवश्यक है?
यहां तक कि वे सरकारें जिन्होंनें इस नियमपत्र पर हस्ताक्षर किए हैं तथा मानने के लिए कटिबद्ध हैं वे (हमारा नक्श देखें) इनमें से किसी एक को मुक्त अभिव्यक्ति को दबाने के लिए प्रयोग करने से नहीं हिचकती हैं। ये पूर्णकरण, अधिकारों के अंतर्गत ये बड़े ही कुख्यात तथा असंख्य उदाहरण हैं तथा राजनीतिक विश्लेषणों की नजर मे ये हाइब्रिड राज्य है (जो कि लोकतांत्रिक तथा अधिकारजन्य घटकों का मिश्रण हों)। वाकई में सरकारी नीतियों की आलोचना को दबाने के लिए ऐसे कारणों का प्रयोग तथा इन प्रतिबंधों को कानूनी तथा अन्य किसी प्रभावी रूप से चुनौती देने की कमी, ऐसे राज्यों की मुख्य पहचान है। मिस्र में होस्नी मुबारक को अपदस्थ करने के बाद ब्लॉगर्स को सेना की आलोचना करने पर जेल जाना पड़ा था। (अरब की टीम – कृप्या विस्त1त जानकारी दें )
सेडीशन सचिव, टेरर
आपको लोकतांत्रिक देशों में भी कई उदाहरण मिल जाएंगे। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में भी असंतोषों को दबाने का काम अपने दंड विधान की धारा 124 ए क्षमतावान राजद्रोह – रोधी के प्रयोग द्वारा होता है [http://www.vakilno1.com/bareacts/indianpenalcode/S124A.htm] जो कि मूलतः अंग्रेजी उपनिवेशवाद युग से लिया गया है (इससे पहले इसे गांधी जी ने आम नागरिकों की स्वतंत्रता को दबाने के लिए भाारतीय दंड विधान के लिए राजनीतिक क्षेत्र का राजकुमार कहा था।’। [http://www.lawyersclubindia.com/forum/Sedition-law-S-124A-IPC-Repeal-this-colonial-legacy-31647.asp]) इसे कई लेखकों जैसे कि अरूधती रॉय के लिए प्रयोग किया जा चुका है जो कि यहां पर इसके बारे में बोलती है। (आंतरिक स्रोत)। दक्षिण अफ्रीका आधिकारिक गोपनीय कानून के बारे मे बहस कर रहा है जिसका मसौदा हाल ही में तैयार किया है, इसमें किसी भी प्रकार के जन हित रक्षा का प्रावधान नहीं है। हमारे मामलों के अध्ययन को यहां पर देखें । (आंतरिक स्रोत )
कई विकसित पश्चिमी प्रजातंत्रों में 11 सितम्बर 2001 के हमलों के बाद तथा मैड्रिड व लंदन मे बमबारी के बाद देश की तथा व्यक्ति की सुरक्षा के नाम पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन किया गया। अमेरिका में आंतकवाद से युद्ध के द्वारा इस विचार को प्रचारित किया गया। युद्ध या राष्ट्रीय आपातकाल का प्रयोग कई स्थानों पर तथा कई बार इन प्रतिबंधों को न्यायोचित ठहराने के लिए किया जाता है जो कि शंति के समय में स्वीकार्य ही नहीं होंगे। लेकिन कौन यह तय करेगा कि कब युद्ध है? एक आपात काल क्या है? (लिखित में तो स्विट्जरलैंड में 38 सालों से अधिक से आपातकालीन चालू हैं।)। दूसरा कोई और उदाहरण दें।
अपनी किताब पेरिलिअस टाइम्सः फ्रीस्पीच इन वार टाइम में अमेरिकी विद्वान तर्क देते हैं कि युद्ध विरोधी पहले संशोधन संरक्षणों के लिए भाषण का पाठ जॉर्ज डब्ल्यु बुश के प्रशासन के अंतर्गत ही हो गया था लेकिन कथित यूएसए देशप्रेम अधिनियम [http://en.wikipedia.org/wiki/Patriot_Act] तथा अन्य उपायों का प्रयोग आतंकवादी के प्रति संदिग्धों को बिना किसी अभियोग तथा इलैक्ट्राॅनिक डेटा को इकट्ठा किए बिना लम्बे समय तक कैद में रखा जा सकता है ।
ब्रिटेन में हीथ्रो हवाई अड़डे पर पकड़ी गई 23 वर्षीय दुकान सहायक समीना मलिक, जिन्हें इसी प्रकार का लौमहर्षक अनुभव हुआ, उसने स्वयं को एक ’संगीतमय आतंकवादी’ की संबा दी तथा उसने ज्वलंत तथा उकसाने वाली जेहादी सामग्री डाउनलोड की है, उसे आतंकरोधी कानून के अंतर्गत अपराधी पाया गया (दोषारोपण एक अपील मे बदल गया। )। 2006 का आतंकवादी नियम तो यहां तक कहता है कि आतंकवाद की प्रशंसा को भी अपराध घांषित किया जाना चाहिए। आलोचकों ने टिप्पणी की है कि यदि कवि डब्ल्यु वी यीट्स जिंदा होते तो उन्हें 1916 के आयरलैंड के उन नायकों की प्रशंयागान करने के विरोध में जेल में डाल दिया जाता जो कि तत्कालीन ब्रिटिश सरकार की नजरों में आतंकवादी थे क्योंकि वे उस समय अंग्रेजों से अपने देश को मुक्त कराने का प्रयास कर रहे थे (मैदोन तथा मैकब्राइड / तथा काॅनौली तथा पियस।/ नाॅउ ंएंड टाइम टूबी/ व्हेयरेवर ग्रीन इज वॉर्न/ आर चेंज्ड, चेंज्ड अर्टली/ ए टेरिबल ब्युटी इज बोर्न )
जनादेश तथा नैतिकता
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अक्सर ब्रिटेन में जनादेश के नाम पर सीमित किया जाता रहा है। ब्रिटेन में हम इस साइट पर किसी भी दस्तावेज को पोस्ट करेंगे, तो अभिव्यक्तियों को दबाने के लिए जनादेश अधिनियम के प्रावधान प्रयोग किए जाएंगे जिन्हें अनुमति मिलनी चाहिए। (हमाद के मामले के अध्ययन के लिंक पर जाएं ) इस अधिनियम का 1986 का संस्करण घमकी देने, गाली देने, अपशब्द बोनले तथा बातों से अपमान करने को, किसी भी व्यक्ति के देखने की सीमा तथा सुनने की सीमा के अंतर्गत परेशानी होना, चेतावनी देना तथा उसके उपरांत तनाव होना कानूनी रूप से दंडदायक है। ऐसे तनाव देने के कारणों का पता लगाना आवश्यक नहीं है। यहां तक कि यदि कार्यवाही से कुछ नतीजा नहीं भी मिलता है तोभी पुलिस कैद मे लेने के लिए इन प्रावधानों का प्रयोग करत सकती है या ऐसा करने की धमकी दे सकती है। और यह सब सिर्फ ब्रिटेन में ही है। और कहीं पर जनादेश का अर्थ है जो भी वर्तमान शक्ति धारक जो भी करना चाहें। (यहां पर पश्चिमी कारण दें )।
कभी कभी जन नैतिकता या मूल्यों की बात होती है तो इसे लिखना तो बहुत ही ज्यादा कठिन है। अश्लीलता, पोशाक या यौन व्यवहारों की बातें जगह और स्थान के अनुसार एक दम अलग होती हैं। ये एक देश में भी एक समय में एक सी नहीं होती है। पोर्नोग्राफी की बात करें तो अमेरिकी उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट रूप से कहा है कि व्यक्ति को किसी भी घटक को तत्कालीन समुदाय के मानकों के अनुसार ही गैरकानूनी पाया जाना चाहिए। लेकिन यह आगे जोर देकर कहता है कि यह सम्बंधित समुदाय पर निर्भर करता है। इओवा के एक धार्मिक, परंपरागत पिछड़े कस्बे में जो शर्मदायक हो सकता है वही सैन फ्रैन्सिस्कों के कैस्ट्रो जिले में बहुत ही आम बात हो सकती है। न्यायालय इस बात पर जोर देता है कि राज्यों को पहले इन बातों पर गौर करना चाहिए। फिर भी समुदायों, राज्यों तथा देशों के बीच की इस खई को भरने का काम इंटरनेट करता है। तो कौन निर्णय लेता है? किस आधार पर?
क्या किया जाना है?
एक दूसरी उत्कृष्ट संयुक्त राष्ट्र मापवाधिकार समिति (लिंक) इन महत्वपूर्ण द्वक्षेत्रों में किसी भी प्रकार की सामान्य टिप्पणी करने के लिए संघर्षरत है। राष्ट्रीय सुरक्षा, इन कानूनों के प्रयोग द्वारा कानूनी जन हितों के लिए जन सूचनाओं को दबाए जाने से या उसे रोकने से जो कि किसी प्रकार की राष्ट्रीय सुरक्षा को हानि नहीं पहुंचा रही हैं या पत्रकारों, अनुसंधानकर्ताओं, पर्यावरण विदों, मानव अधिकार के रक्षकों पर कार्यवाही कर, ऐसी सूचनाओं के प्रति असहमत होने पर कानूनों के प्रयोग के खिलाफ अधिक महत्वपूर्ण है। जनादेश पर यह कहता है कि यह एक खास जन स्थान पर बात करने को निगमित करने के लिए कुछ परिस्थितियों में इसे अनुमति दी जा सकती है। नैतिकता पर यह सिर्फ अपने हाथ उठाता है। यह एन्य सामान्य टिप्पणी (सं22 ) की ओर संकेत देता है जो महसूस करता है कि मूल्यों का सिद्धांत कई सामाजिक, दार्शिनिक तथा धार्मिक परंपराओं से निकलता है। परिणाम स्वरूप मूल्यों की रक्षा करने के लिए सीमाओं को सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए जो कि एक एकल परंपरा से नहीं निकले हैं।’ अर्थात क्या चलन में हैं?
हमारा प्रयास है ऐसे कई सामान्य सिद्धांतों के लिए ज्यादा उत्साह से तथा खास रूप से कार्य करना। इसी को समुहों के विशेषज्ञ ने अपनी 1995 की जोहान्सबर्ग की राष्ट्रीय सुरक्षा, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा सूचनाओं तक पहुंच के सिद्धांतों पर धारा 19 में कहा है। [http://www.article19.org/dataf/iles/medialibrary/1803/kzoburg-principles.k~ pdf]. एक प्रचलित कार्य जो कि जस्टिस इनिशिएटिव आॅफ द ओपन सोसाइटी इंस्टीट्युट द्वारा संचालित, आगे इन सिद्धांतों का और भी नवीन तथा परिष्कृत करने का प्रयास करता है, सूचना के जन अधिकार पर जोर देता है जिसे सैन्दं्रा काॅलिवर इस साइट पर बहस करता है, शीर्ष लिंक बनाया जाना चाहिए। (लिंक ) नवीनतम जानकारी को यहां पर देखा जा सकता है। http://right2info.org/exceptions-to-access/national-security
ऐसा प्रतीत होता है कि कोई भी जन आदेश को दबाने के लिए इस स्तर की स्पष्टता के इस स्तर को पा भी सकतर है, रहने दें, उनके लिए नैतिकता के नाम पर।
इनमे तथा अन्य क्षेत्रों में कठोर, वैश्विक तथा परा-सांस्कृतिक मानकों की स्थाप्ना की वजह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को चुनौती देने वाले सिद्धांत काफी महत्वपूर्ण हो गए हैं। यदि कोई जान बूझ कर नियम तोड़ता है, देश में दिए गए मुक्त वाणी के कानून को चैड़ा करते हुए (अच्छे उदाहरण, गैर पश्चिमी ), उन्हें उचित रूप से कानूनी रूप से दडित किया जा सकता है। लेकिन किसी को भी किसी भी कारण से कहीं पर भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने या कानून के सिद्धांत को चुनौती देने के लिए या किसी खास मामले में इसे लागू करने को लेकर किसी भी तरह से सजा नहीं होनी चाहिए।
reply report Report comment
The link abowe, in the text “here” (“There’s a useful discussion of what the public interest does mean here”), it doesn’t run.
Thanks!
reply report Report comment
Once again we are given the opportunity to read a wonderful, enlightening, thought provoking and educating article; and all the subsequent comments. This subject has been of some interest to me for some time. Please forgive me if my comments seem more than a little incredulous, and perhaps somewhat crazy. I do agree with all that is conveyed within the article. This seems to be an immensely complex subject and I am far form being anything of a writer; with no education, as you have probably gathered by now. We live in changing times, technology is advancing and making it easier to collect information of all types and also to distribute information. All this information technology has multiple uses and can be mixed with other ingredients of generic day to day life to make many byproducts. If we use Facebook we willingly give some personal details out towards strangers and whoever. We also enter a world in which we are well liked and very popular because it is the nature of Facebook to bring us smiling loyal friends and remove any who grumble or disagree with our comments. This does not require any direct action by Facebook staff or anyone else; it’s a natural process. It appears to me there are many aspects of if issue that are completely, or almost unknown to the public; but known to the rare breed of specialists. The poorly educated are helped greatly by modern information technology; but the whole mass of the general public are open to manipulation on a massive scale. If we move form one web site to another and do the same with news outlets we can find on the popular “high hit rate” sites radicalization on a large scale, people with angry opinion but no, or very little knowledge of what their anger is about. I am not very good explaining these things; but I really do believe we must beware. Terrorism and pedophiles are subjects that are genuinely profoundly disturbing; but are we being whipped into hysteria to make us proud to give up our privacy to those with surreptitious agendas. Our TV pumps out lots of propaganda which adds to the mix and sometimes encourages the giving up of more privacy. We also have a problem that all those ‘little guys’ who don’t have any real fire power and capacity to do violence; will be dealt with severely; others , state actors, private contractors and so forth are OK and will get away with anything. Much of the data collecting paraphernalia is owned and used by multiple organisations, business, civil public sector, military, intelligence gathering and so on, one way or another. We sometimes read sensational stories that make “conspiracy theories” of secret Intelligence gathering; when it’s just some day to day mundane operation. The really important issue here is should we be happy for more of our personal information to be stored, and more of our privacy given up. In my limited, but considered opinion definitely not, we cannot trust those in power, if we consider terrorism there are scandals of torture, lies and massive fraud. Look deeper and we find much more of the same going back many years.
reply report Report comment
First of all, congratulations for the project. It’s quite interesting.
I agree with most of the comments above. The definition of public interest online is a very shady business, in particular because the perpetual memory of the internet can, in my view, constrain the usual definitions of the concept, mostly because anything can become of public interest at any time. You can go back years and years on end and find anything related to someone who’s suddently under the spotlight and anything that is unrelated, but still damaging comes up again, even if not in the public’s interest.
There’s a two-fold approach to this, in my view: there’s a need for an education for privacy, in which people are taught how to behave online (and I’m not just referring to social media). We focus a lot on companies privacy policies, but we seldom talk about how the people use the internet, something which, I am sorry to say, the majority seems to know very little about. Then there’s also a need for a regulated approach to privacy, which applies to companies, but also individuals, by which one can enforce not a right to be forgotten, which is technically unfeasible so far, but a right not to be found (see for instance the recent EU Court of Justice referral regarding Google). As Prof. Schoenberg wrote in his book (“Delete”), online abstinence is not a good approach anymore, but neither is online binging, especially involving personal data.
Finally, I strongly feel that, as difficult as it may be, a limit should be set as to how the internet – and internet-linked technologies – should enter our daily lives. This of course involves a serious reflexion on big data, profiling, data retention and so on and so forth.
reply report Report comment
Privacy sounds like a nice thing. If I could have a right to privacy without this interfering with free speech, then I’d be tempted. But what are we supposed to do? If I do tell someone an intimate secret, can I really be given a right to force them never to reveal this information? That sounds an awful lot like limiting free speech.
Attempts to enforce a right to privacy can easily interfere with free speech – and free speech is more important than privacy. It shouldn’t be a question of trying to ‘balance’ a ‘right to privacy’ against ‘the public interest.’ It is not in the public interest to compromise on free speech without an extraordinarily good reason – and preventing people being embarrassed is not an extraordinarily good reason for limiting free speech. Are we really going to argue – without any trace of irony – that, in order to protect free speech, we have to force people to keep quiet about things that might embarrass other people? Very often, this embarrassment results from people being two-faced and deceitful. They want to present one image of themselves to certain people whilst the truth lies elsewhere. Should we compromise free speech in order to protect liars from being discovered?
I am also concerned to challenge the central argument that privacy is a condition of free speech – as expressed in the top paragraph. Providing we don’t have a police state – which obviously wouldn’t have free speech anyway – the argument about a lack of privacy preventing free speech doesn’t hold water. It is true that, even without a police state, most people will still limit what they say if they think their words will not remain private. That, however, is their choice. They are not being forced to keep quiet. Their right to free speech has not been taken away. They are choosing not to share their views – usually because it doesn’t suit them for certain other people to know the truth about what they think.
There are legitimate ways in which we can seek to protect our rights to privacy. Mainly, however, these should focus on restricting some of the more intrusive methods that people might use to gain information about us rather than on restricting how they can disseminate information they have obtained legitimately. Limiting free speech in order to protect people’s privacy, however, is another matter.
We shouldn’t be compromising our free speech principles. When people have concerns about such things as privacy, instead of pandering to any demands they might have that free speech should be limited, we should stand by our principles and argue our case that, however much we might enjoy our privacy, free speech is far, far more important.
reply report Report comment
The problem is not so much that you can’t force someone to reveal your intimate secret, is the fact that it can be revealed potentially to four billion people and that it will stay there forever. You can change jobs, city, country and it will stay there. And this can have horrible consequences. That’s the main issue. The public space changes when it becomes a virtual (online) public space.
The same goes for the concept of free speech. If you apply self-censorship (which in some cases could just be called “common sense”), then you’re restraining your freedom of speech, because you know that the perpetual and open nature of the internet can have consequences in the future. I’m all for making people responsible for their comments, but I also know that people don’t really understand how the internet works and that often they may make comments for a specific group in a specific situation which can then spilled by others and can become potentially harmful. I’m talking about hate speech as much as political, religious or any other views. I don’t agree with the balance metaphor either, but I do think that these two fundamental rights are equally important.
reply report Report comment
I couldn’t agree more with the opinion concerning the importance of freedom of speech, but freedom of speech doesn’t mean public interest, at least not anytime. The right of private life, the public interest and freedom of speech are three legal concepts which are interconnected but different, and obviously, should not exclude each other. Moreover any right involves a correlative duty. Freedom of speech is not incompatible with the right to privacy as long as it is used without breaching the other’s rights, as they are ruled by the relevant statutes.
reply report Report comment
This principle is always going to be a difficult one to juggle. I agree that ‘public interest’ is very vague and could be used to justify either immense amounts of press intrusion or very little depending on where the bar is placed. But as a free speech principle enshrining the right to privacy without some way around it in the statement would seem to be doing the opposite of what much of the project is promoting. A principle of privacy would present a block on freedom of speech rather than an attempt to break down such barriers as most of the other principles do. Indeed I am slightly surprised that the principle was not more radical the other way towards there not being much right to privacy. Principle 8 seems to turn what might otherwise have been quite a radical manifesto for free speech into a much more status quo idea.
reply report Report comment
The second part of the principle 8 is too vague to be accepted as such, without a precise definition of ‘public interest’. This is the reason why I would maintain only the first part of the principle, namely: ‘we are entitled to our private life’, as one of the fundamental human rights enshrined by the European Convention of Human Rights and the ECHR’s judgments delivered according to this.
Any infringement of this right should be justified only either on the legal grounds concerning criminal investigations (including those relating to terrorism and more), and/or the public interest relating to public servants’ activities (public activities and private activities which could make these individuals vulnerably as regards their public status).
reply report Report comment
People shouldn’t be entitled to a private life if it means that they can use their privacy to cause harm to other people. What if someone used their privacy to build a terrorist following?
reply report Report comment
The public interest is far too fickle to consider encroachment onto privacy tolerable. Allowing it to be cherry-picked allows far too much room for abuse.
reply report Report comment
I don’t necessarily agree with this statement as we don’t currently have an accurate way of measuring what’s in the public interest. As a result people believe they are interested in the topics which are in the media, but these might not have been the interests they would have formed left to their own devices.