05विविधता

हम सभी प्रकार के विविधताओं के बारे में सभ्य तरीके से और खुले तौर पर खुद को व्यक्त करते है

असमानता के साथ जीवन यापन

असमानता के साथ जीवन यापन सहज नहीं है। हमारा मन में बैठें गहरे विश्वासों, जीवन मूल्यों एवं एव जीवन पद्धतियों में कोई सामानता नहीं होती है, और उनमें निरंतर संर्घष होते है। हमें उनसे डरना नहीं चाहिए। संघर्ष तो स्वतंत्रता एवं सृजन के स्रोत का एक अनुन्मूलनीय भाग है। अगर उनमें विविधता नहीं रहेगी तो हमारे पास कोई विकल्प नहीं रहेगा और फलतः हमारे पास स्वतंत्रता भी नहीं होगी। हमें संघर्ष को खत्म नहीं करना चाहिए बल्कि यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वह सभ्य तरीके से हो।

इस प्रारूप सिद्धांत की भावना अन्य सभी प्रारूप के सिद्धांतों की तरह विचारने के लिए है। बिना शाब्दिक प्रहार करते हुए मानवीय असमानता के विषयों में विभिन्न प्रकारों के बारे में खुलकर बोलने के लिए स्वतंत्र है। अतः हमें तथाकथित शिष्टाचार की आवश्यकता है। जैसा कि विकिपिडिया पर अनुवादकों के लिए आवश्यक है जहाँ कि शिष्टाचार एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है।  हमारे अनुवादक छात्र अपनी भाषाओं में इसके समतुल्य की खोज़ में गंभीर प्रयास किया है। (नीचे देंखे, अनुवाद में खो जाना) अंग्रेजी में, मैं आॅक्सफर्ड अंग्रेजी शब्दकोश के इन तत्वों की परिभाषा को पसंद करता हूँ दृ ष्लोगों से बातचीत करने के लिए व्यवहार और कथन  उचित हैष् एवं श्सामाजिक स्थिति में एक दम न्यूनतम सभ्यता की आवश्यकता होती हैश्।

घृणित भाषण एवं मूलभूत गुणधर्म

अधिकांश मुक्त भाषण साहित्य इससे संबंधित है कि हमें उन और पुरुषों के विषय में, जो हमसे अलग है, कानून द्वारा क्या कहने के लिए अथवा न कहने के लिए मुक्त है। अंग्रेजी में एक छोटा सा वाक्य का प्रयोग किया जाता है- श्घृणित भाषण। यह परिषभाषित हो चुका है कि वह भाषण जो किसी समूह या व्यक्ति की विशिष्टता है तथा वह अपने कथनों से उनकी विशिष्टता पर भाषण  नुकसान पहुचाने एवं निंदा करने के लिए कथित रूप से किसी विशिष्ट समूह के लिए किए जाते है। अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध के अनुच्छेद 20 नागरिक एवं राजनैतिक अधिकार यह स्पष्ट करता है कि राष्ट्रीय, जातीय या धार्मिक की घृणा का समर्थन करने जिससे किसी भी प्रकार के भेदभाव, शत्रुता अथवा हिसंक तत्वों को प्रोत्साहन मिलता है, वह गैरकानूनी है। पूरा संस्करण इस बात को स्पष्ट करने के लिए समर्पित है कि उसका क्या अर्थ है और कैसे अनुबंध के अनुच्छेद 19-20 की आवश्यकता को कैसे स्थिर एवं सामांजस्य कर सकें। सŸाावादी और उदारवादी लोकतांत्रिक देशों के बीच में इस संबंध  कोई स्पष्ट राय नहीं है कि वे किस ा बात की अनुमति दें और इस विषय पर उनमें गरहे मतभेद है।

पश्चिम के पुराने लोकतांत्रिक के बीच में भी इस बात को लेकर बड़ा मतभेद है। यूरोप के अनेक देशों एवं विश्व के अंग्रेजी बोलने देशों (आस्ट्रेलिया, कनाडा आदि) में पहले ही कानूनी सीमा लग जाती है कि हमें दूसरे के बारे में क्या बोलने की अनुमति है। इस सिद्धांत का विषय अगले तीन प्रश्नों से, इतिहास, विज्ञान एवं ज्ञान के अन्य क्षेत्रों (प.5), हिंसा को प्रोत्साहन देना (प.6) और खास तौर से हमारे आज के आक्रामक समय में – धर्म के विषय में वाद-विवाद की स्वतंत्रता (पृ.7) का गहरा संबंध है। प्रत्यक्षतः यह सर्वाधिक उन कथनों अथवा छवियों के ऊपर लागू होता है जो कि सामान्यतय अन्य व्यक्तियों के अस्तित्व के विषय में कि वे क्या है और उनके विश्वास अथवा विचारधारा क्या है पर नकारात्मक हमला मात्र इसलिए करते है कि उनकी त्वचा काली है उदाहरण के तौर पर वे महिलाएं है या फिर वह किस परिवार में जन्मा है अथवा किस जनाजाति का है।

संयुक्त राज्य में, वे इसे अपरिवर्तनीय अभिलक्षणाएं कहते है, लेकिन जब आप इसे ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि कुछ लोग अन्य लोगों से ज्यादा अपरिवर्तनीय है। यह असमानता अक्सर धर्म के नाम पर उजागर होती है जिसे आप बदल सकते है, जबकि आप जाति के नाम पर इसे आप बदल नहीं सकते है। इस प्रकार  यहाँ विविधता स्पष्ट होती है ? यह बात सच्च है कि आप अपने शरीर की त्वचा के रंगों को नहीं बदल सकते है, जबकि इस संबंध में पाल गिलराय एवं अन्य लोगों ने अलग अलग तर्क दिए है कि श्जातिश् वह है जो सामाजिक तत्वों द्वारा निर्मित किए गए है। दशकों से, एक व्यक्ति की विविधता (पसंद अथवा ना पसंद) जो अमेरिका में काले रंग के रूप में है वहीं ब्राजिल में गोरे रंगे के रूप में है। तो क्या वास्तव में यह मामला, श्जातिश् अपरिवर्तनीय की सूची में शामिल है एवं श्धर्म परिवर्तनीय की सूची में शामिल है को सिद्ध करता है ? तो आप क्या ‘अपरिवर्तनीय विशेषताओं के बारे में क्या सोच रहे है।?

कानून या सामाजिक व्यवहार द्वारा

यह चैथा सिद्धांत, अन्यों की सिद्धांतों की तरह यह सुझाव देता है कि यथासंभव कानून द्वारा प्रतिबंधित किया जाना चाहिए, तथा हमें जिम्मेदार पड़ोसी, नागरिक एवं समूह के सदस्यों के रूप चुनने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। नागरिक शिष्टाचार को कानून द्वारा थोपने की बहुत सी हानियाँ है। आज के मिले झुले विश्व में मानवीय पहचानों की जटिल प्रकृति में यह सटीक परिभाषित करना  काफी कठिन है कि किस चीज़ पर रोक लगाई जाए और किस पर नहीं। यह बहुत ही मुश्किल भरा कार्य है कि किसको प्रतिबंधित करना चाहिए अथवा नहीं करना चाहिए। एक देश से दूसरे देश तक, कानूनी विधान अस्पष्ट शब्दों जैसे श्भावोजकश् (ब्रिटेन) ‘ श्धमकी भरे वाले भाषणश् (डेनमार्क) या उकसाना (स्पैन)। इस कानूनी विधान के रक्षक अकसर कहते है कि इसका प्रयोग केवल अत्यधिक नितांत मामलों के लिए किया जाना है। रिकार्ड के अनुसार यह पता चलता है कि इसका प्रयोग केवल बहुत ही कम अतिवादी मामलों में किया गया है और सर्वाधिक मामलों में उतने अतिवादि नहीं थी  (सीएस-हाममोंड) सबसे अच्छी बात यह है कि इसका प्रयोग केवल चुनिंदा मौकों पर किया गया है, और सबसे बुरी बात है कि कभी कभार ही दुरुपयोग हुआ है।  क्योंकि लोगों यह नहीं जानते है कि हद कहा है, इस विधिक अनिश्चितता का भंयकर दुष्परिणाम हो सकता है।

जैसे ही आप जब इस मार्ग से नीचे उतरेंगे, तब आपको दोहरे मानको का लगातार सामना करना पड़ेगा, अगर जाति आवरित है तो धर्म क्यों नहीं ? अगर धर्म है तो कामकुता क्यों नहीं ? अगर यहूदी और ईसाई है तो मुस्लिम क्यों नहीं ? अगर मुस्लिम है तो समलैंगिक क्यों नहीं ? अगर समलैंगिक है तो बूढ़े लोग क्यों नहीं ? अगर इन आपŸिायों को संतुष्ट किया जाए तो, तब वह रैचेट प्रभाव होगा। यह रैचेट प्रभाव कानून के पहले समानता हेतु उदार प्रयास की प्रक्रिया है, साथ है विशेष समूहों की लाॅबिंग शक्ति भी है। अगर आप नीति का पालन करते है तो आप में अधिक विविधता हो, और वह अधिक टेबुस भी हो जाएगा।

अंततः आप भारतीय दंड संहिता के खंड 153 ए के बृहद स्थान पर पहुँच गए है। जो अपने शब्दों या फिर कथन, लिखने, या किसी भी प्रकार हस्ताक्षर या प्रत्यक्ष प्रतिनिधियों और अन्य द्वारा धर्म, जाति, स्थान, जन्म, आवा, भाषा, जाति या समुदाय या किसी भी तरह से अपनी धर्म तथा दूसरे धर्म के धार्मिक, जातीय, भाषा या क्षेत्रीय सनुदाय या जाति या समुदाय की बैर की असमांजस्यता या भावना रखता है तो उसे तीन वर्ष की जेल हो सकती है। इस फलक के हिसाब से ऐसा लगता है कि यह बहुत ही आधुनिक बहुसांस्कृतिकविद नुस्खा है। वस्तुतः इसकी शरुआत ब्रिटिश साम्राज्य एवं थामस बेविंहटन मैक्यूलै द्वारा दंड संहिता लिखी गई थी। इसके पीछे एक तर्क यह था कि औपनिवेशिक अत्याचार को रोकने के लिए, उपद्रवी नागरिकों को काबू में रखने के लिए जिससे कि किसी को भी यह कहकर जेल में डाला जा सके इसने किसी से कोई आपराधिक बात कहीं है।

लोगों को इस तरह के विचारों, भावनाओं को सार्वजनिक रूप से प्रकट करने से रोकने, आप उनकी सोच एवं भावना को देखकर आप उन्हे रोक नहीं सकेंगे।

अपराध करना

व्याप्त स्पष्ट प्रभाव इस तरह के कानून विधान में व्याप्त भ्रष्ट प्रभाव लोग को अपराध करने के लिए प्रोत्साहित करता

है। क्या हम मानव जाति कि तरह बनना पसंद करेंगे जो निरंतर अपराध करता रहता हो ? (यह मजबूत स्थिति बल्कि कमजोर स्थिति का नुकसान है) दक्षिण अफ्रिका के लेखक जेएम कोएंटजी के अनुसार यह एक धारक, जब चुनौती है तब वह अपराध करता) क्या हम कभी अपने बच्चों को ऐसे करने का शिक्षा देंगे जिसमें हम उन्हें अपराधी के रूप में देखेंगे) यहाँ तक की क्या आप यह सोचते है श्संदेश प्रेषणश् के लिए भी प्रतीकात्मक एवं भाववाहक रूप से संदेश प्रेषण में भी कोई नियम लागू होना चाहिए, जिससे यह निर्धारित हो कि यह संदेश प्रेषित करने हेतु उपयुक्त है? जाना चाहिए, क्या यब भेजने के लिए सही संदेश है) या फिर क्या हम चाहते है कि हमारे बच्चे बड़े होकर यह समझे कि मनुष्य जाति अपनी जातिवाद, लिंगवाद, राष्ट्रीय एवं भेदभाव द्वारा एक मनुष्य को नीचा दिखाकर उसका निराधार अपना करता है, उस मानव का अपमान किया जाता है जिसका अपमान नहीं किया जाना चाहिए।

अंग्रेजी की एक पुरानी कहावत है ‘लकड़ी एवं पत्थर मेरी हड्डी तोड़ सकते है पर किसी के द्वारा कहे गए शब्द नहीं। वर्णनात्मक कथन के अनुसार यह बिल्कुल ठीक है। शब्द हमें बहुत गहराई से चोट पहुँचाते है। इसे विवरण के रूप में नहीं बल्कि इस नुस्खे के रूप में जिसमें आप इसको दूसरे अर्थ को खोज़ कर सकेंगे। यह एक भला मनुष्य बनना जो कभी भी घृणा बीभत्स, अपमानजनक भाषा द्वारा आघात नहीं हुआ हो। इस दुनिया में हम प्रत्येक जिन विभिन्नता की आत्मीयता का सामना कर रहे है, हम सभी अपनी शरीर की पतली त्वचा के साथ ही बढ़ते है।

यह स्पष्ट है इस बात को समझने के अगरक बहिष्कृत अल्पसंख्य जाति की महिला की जगह आप एक समृद्ध एवं शक्तिशाली पुरुष हो जो प्रबल बहुमत हासिल कर्ता हो। हमारी स्वैच्छिकचा कोड केवल इस बात को कहने तक ही सीमंत नहीं है कि हम सभी की पतली त्वचा होती है। यह कमजोर एवं सख्य की भेदता को समझाएगा।

सुदृढ़ नागरिकीय शिष्टाचार की ओर

अपनी भावना को व्यक्त करने के लिए हमें स्वतंत्र रहना पड़ता है, हमारे पास अपनी रक्षा के लिए नियम का उल्लंघन करने का अधिकार है  इसका अर्थ यह है कि अपराध करना हमारा कार्य है। हमें आवश्यकता है कि हम स्वतंत्र होकर बोलने की एवं उसकी विभिन्न की खोज़ कर बिना किसी मानव जाति की मान-मर्यादा को ठोस पहुँचाए विशेषकर  उनसे जिनसे हम बात कर रहे अथवा जिनके बारे में बात कर रहे है।

मुखर शिष्टा के कई मार्ग होते है और वे प्रकरण के साथ बहुत हद तक भेद रखते है (यह एक अन्य कारण है एक आकार जो घृणा कथन की सभी विधि के लिए फिट बैठता है वह बहुत ही बुरे ढंग विनिमय किया जात है। यह मानव से बातचीत करने का सबके जटिल प्रकार है। अधिक हास्य कथन के लिए उदाहरण के रूप में, शिष्टा की स्वाभाविक लाइनें निश्चित रूप ले उल्लंघन करती है। विश्व के आधे चुटकले, चहरे के अंकित मूल्य, अपमानजनक जातीय या यौन अस्प्ष्टता पर आधारित होते है। सौम्य उदाहरण के रूप में, ओमिड डीजाली ने कतहा ,मैं ही एक विश्व का एकमात्र इरानियन हास्य अभिनेता हूँ – जो जर्मनी के तीन के बराबर हूँ‘। कभी-कभी, यहूदी चुटकुले एवं सामी विरोधी चुटकले के अंतर तब ही पता चलते है जब उन्हें कोई कहता है।

बिना उसके बारे में सोचे, हम दिन में कई बार अपनी मुखर शिष्टा को बदलते रहते है। ऐसी बहुत सी बाते है जो आप अपने दोस्त को किसी बार में बैठे हुए बता सकते है किंतु वहीं बात आप अपने खाने की मेज़ में बैठकर अपनी दादी माँ को नहीं बता पाते हो। समितियाँ, स्कूल, क्लब, फैक्टरी, विश्वविद्यालय, कार्यालय सभी के अपने औपचारिक अथवा अनोपचारिक कोई होते है। यह अक्सर अधिक प्रतिबंधी होता है,  या कम से कम, और अधिक औपचारिक शिष्टाचार होता है, जो हम आमतौर पर करते रहते है। अधिकांश प्रकाशन एवं वेबसाइट के उनके अपने संपादकीय एवं समुदाय मानक होते है।

नेविगेशन के रूप में ल कर भाषण देना

एक महान दार्शनिक माइकल फोउकल्ट हमें यह बताते है कि, एपिकुरे विचारक जेनो सिडोन ने यह तर्क दिया था कि मुक्त कथन को भी एक विद्या के रूप में सिखाया जाना चाहिए, जैसे तकनीकी विषयों  चिकित्सीय एवं नौवाहन की शिक्षा दी जाती है। मुझे यह पता नहीं है जेनो से और फोकल्ट से सहमत होंगे, पर इन तथ्यों को देखकर ऐसा लगता है कि यह मेरे समय की महत्वपूर्ण विचार है। इस भीड़ से भरी हुई दुनिया में हमें भाषण द्वारा नेविगेट करना सीखना चाहिए, जैसे प्राचीन नाविक ने एगियन समुद्र में जहाज चलाना सीखा। हम कभी भी नहीं सीख पाते अगर राज्य हमें नाव को बाहर ले जाने की अनुमति नहीं देता।

एक अच्छे उदाहरण के रूप में, एक समुदाय जो अपनी शिष्टा के आचरण की बदौलत अपना वचस्र्व स्थापित करता है, वह है विकिपिडिया। (अधिक – सीएस/वेल्स साक्षात्कार) हम इस बेवसाइट के समुदाय स्तर पर वैसा ही करने का प्रयास किया है। अगर हम में से अधिकांश लोग मुक्त एवं सभ्य विचार विमर्श के लिए तैयार हो जाए तो स्वैच्छिक रूप से किसी विशिष्ट समुदाय अथवा किसी विशेष परिप्रेक्ष्य में स्वघोषित क्या सीमाएँ होनी चाहिए, जिनका की मुक्त अभिव्यक्ति एवं सभ्य समाज की एक उपलब्धि होगी। यह एक जटिल , संवेदनशील विषय है। हमारे कुछ सलाहकार, यहाँ पर मेरे द्वारा दिए युक्ति से सहमत नहीं है (जेरेमी बालड्रान, उदाहरण के तौर पर, यह यूरोपियन एवं कनाडियन स्टाईल कानूनी विधान हेतु यह एक बुहत एक ठोस मामला है)। हमने कहाँ इस संक्षिप्त नीचे दी गई टिप्पणी के साथ विवाद को बंद करो। उनके विषता विचारों को देंखे। अब आप अपना विचार जोड़े।


Comments (2)

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    All taboos are different and thus be treated differently.

    One the one hand, taboos exist in a way that hinders efficient decision making. For example, criticizing anyone who is homosexual, of a certain ethnicity, of a certain religion etc. for things completely unrelated to the aforementioned traits, can cause a disproportionate amount of controversy, so as to render any discussion impossible. An example that comes to mind is regarding the Israeili community in the US. There was a book called “The Israel Lobby” written by Professor Walt and Professor Mearsheimer. While the book was merely attempting to point out that US policy may be influenced too much by AIPAC, it was criticized by certain members of the pro-Israel community as anti-semitic. Anything critical of the Israel community being dubbed as anti-semitism discourages healthy debate. Same goes with racism and homophobia.

    On the other hand, I believe some taboos should remain in place. I used to be the most carefree liberal person I knew in the past, a staunch practitioner of subjectivism. One day I met someone who pronounced publicly his support for zoophilia, and said “anyone wishing to debate me on this issue is welcome, for I will crush your arguments”. Even with my laisser-faire attitude at the time, I sensed a great discomfort. I heard about zoophilia for the first time because of him. (I wish I can un-learn this.) Truth is, debating about zoophilia on a wider scale, will only serve to educate existing perverts in society to pave the way for actual practice. A debate won’t change them. Logic works both ways, so there many never be an end to the debate at all. And those who are against it, will be against it anyways, without discussion. Same goes with paedophilia and incest.

    개인적으로는 특정 사회적 금기가 존속했으면 좋겠으나, 민주주의 원칙과 양립하지 않는다는 문제가 있죠. 민주주의가 무엇을 위한 것인지 재고를 필요가 있다고 봅니다.

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    You state: “Freedom of expression helps us get closer to the truth.” It seems to me that you are here applying an observer-independent view of reality. Please correct me if I’m wrong. – I ask: Who’s truth? Where do you have that truth? From an observer-dependent view of reality, which I apply, your principle doesn’t make much sense. Here truth or ‘reality = community’ (in Heinz von Foerster’s very simple words).

    • Je suis également gênée par l’usage du mot ‘vérité’. Quelle est la fonction de l’article défini, s’agit-il vraiment de ‘la vérité’? Peut-il y avoir plusieurs vérités? Serait-il question d’une vérité subjective plus que de ‘la vérité’? Est-il préférable de laisser ce terme défini par son seul article ou l’idée qui se cache derrière bénéficierait-elle d’un adjectif (ou deux) pour la rendre plus claire? Et en fin de compte, qu’est-ce que ça veut dire ‘la vérité’?

      I also feel uneasy with the use of the word ‘truth’. Why is there a definite article here, are we really talking about the truth? Could we conceive many truths? Can this truth be a subjective one more than ‘the truth’? Would it be better to leave this term with its article as sole definition or could the idea behind it benefit from an adjective (or two)? Actually, does ‘the truth’ mean anything?

      Ich betrachte auch das Wort ‘Wahrheit’ mit Unbehagen. Warum gibt es ein bestimmter Artikel hier, sprechen wir ja von ‘der Wahrheit’? Können nicht auch Wahrheiten bestehen? Kann diese Wahrheit subjektiv mehr als ‘die Wahrheit’ sein? Ist es besser das Wort allein mit seinem Artikel zu belassen oder wurde die Ansicht, die hinter ihm steht, mit einem Adjektiven (oder zwei) mehr verstehbar? Im Grunde genommen, bedeutet ‘die Wahrheit’ etwas wirklich?

      • The typical modern approach that “All truths are subjective” may only be valid on a narrow sense, in a sense that we are trapped in our own perceptions. But to take this argument to its extreme, one could say, “I brutally murder children and that is how I achieve truth in life”. One can say then, that “human rights” is the absolute norm. But that would require the presence of an absolute truth, which would be self-contradictory.

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    “Even false challenges can contain a sliver of truth. The mind’s muscles, like the body’s, must be stretched to stay strong.”

    So why all the use of the intolerant word ‘denier’ esp over climate change? True freedom of speech involves standing up for the right of those who you disagree (or even hate most )with most to say (and be heard) what they think.

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    There are some things that shouldn’t be discussed ever, like pedophila or terrorist-promoting materials.

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      Can you elaborate? How can we tackle paedophilia if we never discuss it? I also don’t think it’s a clear-cut case with materials promoting terrorism. Who decides what constitutes a terrorist act? There is no legally binding definition in international law. Plus what if I set up a “terrorist” website but no-one reads it? I’d be interested to hear what you think.

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    Auch mir erscheint dieses Prinzip als zu schön, um die Probleme zu lösen. Natürlich läßt sich niemand durch ein Verbot, durch ein Tabu davon überzeugen, dass ein massenmord, eine systematische Vernichtung von Menschen stattgefunden hat. Die Leugnung der Ermordung von Milllionen unschuldiger Menschen in Deutschland und durch Deutsche isgt aber nicht Ausdruck einer bestimmten Meinung sondern es dient der Provokation und Verächtlichmachung der Ermordeten und der Überlebenden dieses Massakers.
    Und ein zweites Problem: die Freiheit der Verbreitung von Wissen muss möglicherweise Grenzen haben beim Urheberrecht.

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    The problem is not only “allowing” the discussion and dissemination of knowledge, but also making sure that it happens.
    One the biggest issues related is determening the definitions of such words as “genocide” and its use. These words carry very large negative conotations, and it is no secret that wording used in describing an event can easily sway the public’s opinon. Keeping this in mind, I think it was a mistake to mention only authoritation, totalitatian and non-western countries (as Turkey). True, the United States government may not persecute it’s journalists for claiming that what happened in East Timore from 1974-1999 was a systematic “genocide” of its citizens by Indonesian army, but that is because barely any do so, reason being that Indonesia is a close ally of the USA. Similar events happened when the Kurds were persecuted and killed by Iraqis and Turks. The amount of times the word “genocide” was used to describe the actions of Iraqi army was by a very significant margin larger than the amount to describe the Turkish military army actions, despite the fact that their (Turks) actions were by far way worse (in terms of number of casualties, displaced people etc.). And once again it was the relations of the US with these countries that determined the treatement of the events in the media.
    Therefore, I think that this priciple, despite me agrreing with it, is too idealistic for the world we live in.

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'वाक्-स्वतंत्रता पर चर्चा' ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के सेंट एंटनी कॉलेज में स्वतंत्रता के अध्ययन पर आधारित दह्रेंदोर्फ़ कार्यक्रम के अंतर्गत एक अनुसन्धान परियोजना है www.freespeechdebate.com

ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय