9 फरवरी 2015 को अफज़ल गुरु की फ़ासी की तीसरी सालगिरह पर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) में एक प्रदर्शन का आयोजन किया गया। (अफज़ल गुरु को 13 दिसंबर के संसद के हमले के लिए दोषी ठहराया गया था।) इस समारोह का शीर्षक था “द कंट्री विथाउठ अ पोस्ट-ऑफिस” जो कि आघा शाहिद अली की इसी नाम की कविता पर आधारित था। इस प्रदर्शन के कई पहलू थे: मृत्युदंड का विरोध करना, कश्मीर की स्वाधीनता का समर्थन करना और गुरु पर चलाय गए विवादस्पद मुक़दमे पर सवाल उठाना। विश्वविद्यालय के एक वामपंथी संगठन (डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स यूनियन) द्वारा आयोजित इस प्रदर्शन का अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) के कार्यकर्ताओं ने कड़ा विरोध किया। उनका कहना था कि इसमें “पाकिस्तान ज़िंदाबाद”, “भारत के टुकड़े होंगे हज़ार” और “भारत की बर्बादी तक जंग जारी रहेगी” जैसे नारे लगाये गए थे। कई छात्रों का कहना है कि इसमें से “पाकिस्तान ज़िंदाबाद” जैसे कई नारे स्वयं ABVP के कार्यकर्ताओं ने लगाये थे। इस बात की पुष्टि करते एक वीडियो भी आगे रखी गयी है। प्रदर्शन के शुरू होने से पहले ही ABVP ने JNU प्रशासन को इस कार्यक्रम को दी गयी अनुमति रद्द करने की अर्ज़ी दी। प्रशासन ने प्रदर्शन शुरू होने से ठीक पांच मिनट पहला ऐसा ही किया। JNU छात्र-संघ के अध्यक्ष कन्हैय्या कुमार को हिरासत में लिया गया और प्रदर्शन के अन्य आयोजकों की फ़िलहाल पुलिस द्वारा तलाश जारी है।
इस पूरे मामले ने भारत में वाक्-स्वतंत्रता पर सवाल खड़े किये हैं। सबसे पहले राजद्रोह पर भारत का कानून समझना अनिवार्य है। भारत के संविधान में वाक्-स्वतंत्रता को मूलभूत अधिकार का दर्जा दिया गया है। मगर साथ ही साथ यह बात भी कही गयी है कि ऐसी स्वतंत्रता “भारत की प्रभुता और अखंडता और राज्य की सुरक्षा” के हित में युक्तियुक्त निर्बंधन अधिरोपित करने वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी। कुछ ऐसी ही विधि भारतीय दंड संहिता की धारा 124(A) में पायी जाती है जिसके तहत राजद्रोह को एक अपराध करार दिया गया है। इस धारा के तहत जो कोई भी मौखिक, लिखित, या किसी अन्य प्रकार से कानूनी तौर पर स्थापित सरकार के ख़िलाफ़ द्वेष या विद्रोह उत्तेजित करता/करती है या करने का प्रयत्न करता/करती है उसको सज़ा दी जायेगी। 1922 में इसी धारा के तहत मोहनदास करमचंद गांधी को यंग इंडिया पत्रिका के अपने लेखों के लिए दोषी ठहराया गया था। उनका कहना था की :”धारा 124(A), जिसके तहत मैं प्रसन्नता से खुद को आरोपी पाता हूँ, वे भारतीय दंड संहिता में नागरिकों की स्वतंत्रता को कुचलने वाले राजनैतिक प्रावधानों में प्रधान हैं। (देश के प्रति) लगाव का कानून द्वारा उत्पादन या नियंत्रण नहीं किया जा सकता। जिसको कानून एक अपराध बतलाता है उसको मैं एक नागरिक का सर्वप्रथम कर्त्तव्य मानता हूँ।”
आज ऐसी विडम्बना आगे आई है कि जिस नेता के नाम पर आधारित विश्वविधालय में वाक्-स्वतंत्रता को लेकर संघर्ष चल रहा है, उसी नेता के नेतृत्व या मौजूदगी में वाक्-स्वतंत्रता पर कई पाबंदिया लगायी गयी थीं। संविधान सभा द्वारा पारित प्रावधान में मानहानि, न्यायालय-अवमान, शिष्टाचार सदाचार और राज्य की सुरक्षा से सम्बंधित विधियों द्वारा लगाये वाक्-स्वंत्रता पर अंकुश को अनुमति दी गयी थी। उस वक्त सोमनाथ लाहिरी, सरदार हुक्म सिंह और पंडित ठाकुर दास भार्गव जैसे नेताओं ने असहमति जताई। उनका कहना था कि ऐसे ही कानूनों के चलते अंग्रेजी सरकार ने स्वतंत्रता सेनानियों के ख़िलाफ़ मुकदमे चलाकर उनको कई दफ़ा जेल भिजवाया था। पहले संशोधन के तहत इस प्रावधान में “निर्बंधन” (restrictions) शब्द से पहले “युक्तियुक्त” (reasonable) जोड़ा गया और “लोक व्यवस्था” को वाक्-स्वंत्रता पर अंकुश के आधारों में जोड़ा गया। उस वक्त श्यामा प्रसाद मुखेर्जी ने इस संशोधन का विरोध करते नेहरू की ” निन्दात्मक असहिष्णुता” पर आपत्ति व्यक्त की। नेहरू के नेतृत्व में ही इस प्रावधान का 1963 में एक बार फिर संशोधन किया गया और भारत की प्रभुता और अखंडता के हित के ख़िलाफ़ वाक्-स्वतंत्रता के प्रयोग को रोकने की अनुमति दी गयी।
अगर राजद्रोह पर कानून की बात करें तो इसमें उच्चतम न्यायालय के फैसलों पर ध्यान देना ज़रूरी है। केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य में न्यायलय का कहना था कि राजद्रोही बयान सिर्फ़ तभी दंडनीय माने जायेंगे जब वे हिंसा या लोक अव्यवस्था के लिए उत्तेजित करते हों। इन्द्रदास बनाम असम राज्य तथा अरूप भुयन बनाम असम राज्य में अदालत ने एक बार फिर इस कानून पर अपना पक्ष स्पष्ट किया। राजद्रोह के दंड का पात्र होने के लिए बयान का अपराध के लिए उत्तेजित करना अनिवार्य था और वो भी केवल तब जब ऐसे अपराध की निश्चितता साबित की जा सके। हाल ही में श्रेया सिंघल के अपने फ़ैसले में एक बार फिर अदालत ने वकालत और उत्तेजन के बीच अंतर किया है। इन फैसलों के चलते महज़ हिंसा या राज्य का विद्रोह करने की वकालत करना एक अपराध नहीं है।
मगर इसके बावजूद पुलिस बार-बार धारा 124(A) के तहत लोगों पर मुकदमा क्यों दर्ज करती है? और वो भी तब जब उनके बयानों में विवादस्पद बात की गयी हो मगर वहां हिंसा और अपराध के लिए उत्तेजित करने का कोई सवाल तक न हो। असल बात ये है कि इस कानून का एक राजनैतिक हथियार के तौर पर प्रयोग किया जाता है। क्योंकि आरोपियों को कुछ न कुछ दिन जेल में गुज़ारने पड़ते हैं और कचहरी के चक्कर काटने पड़ते हैं, यह कानून सरकार से असहमति जताने वालों के ख़िलाफ़ और उनको खामोश करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
इस पूरे विवाद में मीडिया का रवैया भी चौंका देने वाला रहा है। कट्टर देशभक्ति का प्रोत्साहन करते कई पत्रकारों ने प्रदर्शन करने वालों के खिलाफ एक अभियान सा चला दिया है। इस अभियान में मानो सच पेश करने की कोई गुंजाईश ही न रही हो। JNU के छात्र और प्रदर्शन के प्रमुख आयोजक उमर खालिद के खिलाफ मीडिया में की गयी टिप्पणी पर गौर करें। कई चैनलों ने खबर दी कि उमर के जैश-इ-मुहम्मद के साथ तालुक्कात हैं। जबकि यह बात बाद में असत्य निकली, क्या यह लापरवाही और मानहानि नहीं है? और तो और सच यह है की उमर खालिद एक जाने माने नास्तिक वामपंथी छात्र-नेता हैं। यह स्पष्ट है कि केवल मुसलमान नाम होने के कारण उनपर इस प्रकार के इलज़ाम लगाये गए हैं।
जब कन्हैय्या कुमार को पटियाला कोर्ट में सुनवाई के लिए पेश किया जा रहा था उनपर वहां मौजूद वकीलों ने प्रहार किया। ऐसा एक नहीं बल्कि दो बार हुआ। हालांकि उच्चतम न्यायलय ने कुमार की सुरक्षा के आदेश दिए और इसके लिए की गयी व्यवस्थाओं के निरीक्षण के लिए एक टीम गठित की, तब भी दिल्ली पुलिस ने अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभाई। बल्कि अदालत द्वारा गठित टीम ही हिंसा का शिकार होते बाल-बाल बची। इस सिलसिले में एक वीडियो में भाजपा के विधायक ओ. पी. शर्मा को कम्युनिस्ट पार्टी के नेता पर मार-पीट करते देखा गया। उन्होने आगे यह बयान दिया कि यदि कोई पाकिस्तान का समर्थन करता है तो वह ऐसी ही हिंसा के लायक है। एक तरफ़ पुलिस राज्य की सुरक्षा के हित में छात्रों की गिरफ़्तारी करने का दावा करती है तो दूसरी तरफ़ अपनी ही हिरासत में व्यक्तियों का संरक्षण करने में असमर्थ साबित हुई है।
अगर इस सब में कोई उम्मीद की किरण नज़र आती है तो वो है JNU के छात्र-शिक्षकों का जवाब। बड़ी तायदाद में और शांतिपूर्वक तरीके से उन्होंने कन्हैया कुमार तथा अन्य छात्रों पर कार्यवाई पर बुलंदी से आवाज़ उठाई है। इस संघर्ष में उनको विश्वभर से छात्रों और शिक्षकों से समर्थन मिला है। ऑक्सफ़ोर्ड और कैम्ब्रिज से लेकर हार्वर्ड, कोलंबिया और येल, तथा अन्य विश्ववद्यालयों के व्यक्तियों ने भारत में चल रहे वाक्-स्वतंत्रता पर हमले की निंदा की है।
हाल ही में भारत में बढ़ती असहिष्णुता पर ज़ोर-शोर से बहस हुई थी। कुछ लोगों का कहना था कि असहिष्णुता पर चिंता व्यक्त करने वाले देश और प्रशासन की बदनामी करने की साज़िश के अंश हैं। मगर JNU में हुए इस मामले के चलते उनका पक्ष कुछ कमज़ोर नज़र आता है। जिन अंग्रेज़ों ने हमें राजद्रोह का कानून दिया था (और हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ इसका प्रयोग किया था), अब वे भी इसको एक अपराध नहीं मानते। बल्कि स्कॉटलैंड के नागरिकों द्वारा आज़ादी की मांग के चलते सितम्बर 2014 में अंग्रेजी सरकार ने रेफेरेंडम (जनमत) का भी आयोजन किया। मगर कश्मीरियों के लिए ऐसी मांग करना भारत में आज राजद्रोह कहलाता है। अगर आज हम अंग्रेज़ों से विरासत में मिले कानून का अपने ही नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने का प्रयोग करते हैं तो यह सवाल ज़रूर खड़ा होता है: क्या भारत सचमुज आज़ाद है?
(इस लेख के लिए मिली सहायता और प्रेरणा के लिए मैं जोयीता दे का आभारी हूँ।)