चार्ली हैब्डो हत्याकांड के संधर्भ में आर्थर एसरफ अल्जीरिया में फ्रांसीसी उपनिवेशकीय दोगलेपन के इतिहास का विश्लेषण करते हैं।

चार्ली हैब्डो हत्याकांड के संधर्भ में आर्थर एसरफ अल्जीरिया में फ्रांसीसी उपनिवेशकीय दोगलेपन के इतिहास का विश्लेषण करते हैं।

चार्ली हैब्डो के पैरिस के दफ्तरों पे जनवरी 2015 में हुए हमलों ने free speech और फ्रांस के अंदर व बाहर, उसकी सीमाओं पर चर्चा की बौछार सी कर दी है। हालांकि इस चर्चा का कुछ हिस्सा 1980 में सैटैनिक वर्सेस के इर्द गिर्द हुए विवाद से समानताएँ रखता है, लेकिन इस बार कई लोगों के लिए यह फ्रांस में होने के कारण और भी ज़्यादा प्रतीकात्मक है। इस सन्दर्भ में फ्रांस – प्रबोधन का अनुयाई, वोल्टैर की जन्मभूमि, मानवाधिकारों का आविष्कारक – एक नए ख़तरे के हमले की आशंका में था। लोक-तंत्र-संबंधी मूल्य 11 जनवरी 2015 को फ्रांसी भर की सड़कों पर उतरे लघभग 40 लाख प्रदर्शनकारियों का नारा बन गया था। इसके बाद सरकार ने यह मूल्य देश के युवाओं के दिलो-दिमाग़ में डालने के लिए देश भर के विद्यालयों में कई बड़े अभियान चलाए। केवल कुछ ही लोग यह सोचने के लिये रुके कि गण्तांत्रिक मूल्यों के पीछे खड़ा होना एक विवाद का विषय हो सकता है। आख़िरकार, फ़्राँस ने 19वीं सदी से बहुत बड़ी मुस्लिम जनसंख़्या पर राज करा है और पूरे उपनिवेशक काल में उन्हें बोलने की आज़ादी ना देकर खुश थे। इससे पहले कि हम freedom of speech को एक गणतांत्रिक, फ्रांसिसी या पश्चिमी विचार घोषित करें, हमें एक बार रुक कर इसके इतिहास को भी देखना चाहिए। फ़्राँस का प्रैस की स्वतंत्रता का प्रतिष्ठित कानून, जो कि 2015 में भी लागू है, 29 जुलाई 1881 गठित किया गया था। उस समय यह गणतंत्र की मुसलिम जनसंख्या के ऊपर लागू नहीं होता था। हालांकि यह कानून सभी फ्रांसीसी निवासियों के अधिकारियों की रक्षाकरता था, ख़ास तौर से उनकी जो कि अल्जीरिया और दूसरी कालोनियों में थे (आर्टिकल 69), लेकिन यह कानून गणतंत्र की बहुत बड़ी प्रजा की, जो कि फ्रांसीसी उपनिवेशक का बहुत बड़ा हिस्सा था, रक्षा नहीं करता था। यह केवल एक मामूली सी चूक नहीं थी; इस घटना से महज़ कुछ ही दिन पहले, 28 जून 1881, को इसी संसद ने इत्ना ही प्रतिष्ठित एक और कानून स्थानीय जनसंख्या के लिए पास करा था। इस कानून के अंतर्गत, एक विचित्र न्याय की समानांतर व्यवस्था लागू करी गई थी जिसमें स्थानीय जनसंख्या अफसरों के खिलाफ कुछ नहीं बोल सकते थे, अखबार छापना तो दूर की बात लोग बेरोकटोक इकट्ठा भी नहीं हो सकते थे। यह कानून सही प्रक्रिया को नज़रंदाज़ करता था, इसमें कोई जाँच नही होती थी व विभिन्न बेतुके जुर्माने व सज़ाएँ दी जाती थीं। Freedom of speech, कई और नागरिक अधिकारों की तरह फ़्राँस के अंदर तो लागू कर दी गई थी लेकिन उसी समय फ़्राँस से बाहर की कलौनियों के लोगों को – वह जातियाँ जो कि अभी आधुनिक नागरिकता के फायदे उठाने के लायक नहीं थीं – इनसे वंचित रखा गया था। हालांकि, 1881 के यह कानून फ्रांसीसी राज्य के की अफ्रीका व एशिया की उपनिवेशकीय जनसंख्या के कई वर्गों पर लागू नहीं होता था, परंतु अल्जीरिया के संधर्भ में यह बहुत शिक्षाप्रद है क्योंकि यह खासतौर से मुसलमानों को निशाना बनाता था। उपनिवेशकीय अल्जीरिया में, सिरफ कुछ अपवादों के साथ, जो मुसलमान नहीं थे केवल वे ही नाग्रिक कहलाए जाते थे। मुसलमान एक अलग जातीय कानूनी श्रेणी होती थी जिसका कोई भी धार्मिक महत्व नहीं होता था। उदाहरणत: एक बेतुकी बात को दर्शाते हुए, कई न्यायी मुकदमें इस बात की पुष्टि करते हैं कि चाहे वह इसाई धर्म ही क्यों ना अपना लें, स्थानीय जनसंख्या कानूनी तौर से मुसलिम ही रहेगी और वह भेदभावपूर्ण कानून झेलेगी और नागरिकता से वंचित रहेगी। चूंकि अल्जीरिया औपचारिक रूप से फ़्राँस का भाग था, प्रैस की स्वतंत्रता के इस कानून ने एक निरालि स्तिथि को जन्म दे दिया था जिसमें एक छोटी उपनिवेशिक जनसंख्या व फ्रांसिसी देशीयकृत किए गए अल्जीरिया के यहूदियों ने, 1871 में,फ़लते फूलते अखबार के उद्योग लगा लिए थे जो कि बेरोकटोक कुछ भी छाप सकते थे और सरकार की तीख़ी निंदा करने का कोई अवसर नहीं गवाते थे। मुसलमानों पर, दूसरी तरफ, कई प्रतिबंध लगे हुए थे व उन्हें सरकार द्वारा धमकाया जाता था। परिणाम स्वरूप, 20वीं सदी कि शुरुआत में, अल्जीरियनों द्वारा अल्जीरियनों के लिए कभी कभार ही अखबार छपते थे और पहला दैनिक अखबार अल्जीरिया की आज़ादी के बाद 1962 में छपा था।कोई भी मुसलमान लिखना तो दूर, अगर छोटे से छोटे भ्रष्ट सरकारी करमचारियों के खिलाफ अवाज़ भी उठाता धा तो उसे बिना किसी मुकदमेबाज़ी के, नजरबंदी या देशनिकाला देने का जोख़िम उठाना पड़ता था एक बहुत खूनी जंग के बाद, मुसलमान जो कि ‘हारे हुए लोग’ थे, उन पर स्वतंत्रता से बोलने का भरोसा नहीं करा जा सकता था कि कहीं वो फ़्राँस के विरोध में एक जुट ना हो जाँए। 1905 का जाना माना कानून जिसने धर्म और देश के चलाने को अलग अलग कर दिया था वो अल्जीरिया में भी लागू होना था पर कभी किया नहीं गया। फ्रांसीसी गणतंत्र लगातार 1962 तक इमामों की नियुक्ति व उनका संचालन करता रहा था।संक्षेप्त में, फ़्राँस में प्रैस को स्वतंत्रता जिस समय मिलनी शुरू हुई उसी समय हिंसा, इस्लामोफोबिया व उपनिवेशकीय जातिवाद भी बड़ना शुरू हो गया था। फ़्राँस कभी भी प्रैस की स्वतंत्रता का अनापत्तिजनक मार्गदर्शक , खासतौर से मुसलमानों को लेकर, नहीं रहा है। उपनिवेशी अल्जीरिया में परेशानी मुसलमानों का गणतांत्रिक मूल्यों का समाकलन कर पाना नहीं था। बल्कि परेशानी इससे एकदम उलटी थी; फ्रांसीसी कानूनों की बनावट मुसलमानों को आज़ादी से बोलने से रोकती थी और यह कानून 2015 के महानगरीय फ़्राँस में आज भी लागू हैं। इसीलिए फ्रांसीसी एवम् अंतरराष्ट्रीय मीडिया का चार्ली हैबडो के हमले के ऊपर चर्चा का इसलाम की समाकलनता व अनुकूलता का रूप देना आश्चर्यजनक है। इससे पहले हम मुसलमानों से उनकी free speech के मूल्यों का अनुपालन करने का सबूत मांगें, बहतर होगा के हम इतिहास को याद कर लें जब ये मूल्य उनको वन्चित रखने के लिए इस्तेमाल करे गए थे।लेकिन, इतिहास की ये सब घटनाएँ किसी भी प्रकार से जनवरी 2015 के हादसे को उचित नहीं ठहराती। कोआची भाई भले ही अल्जीरियन मूल के क्यो ना हों लेकिन वह पैरिस में ही पैदा हुए थे व यमन में उन्होंने ट्रेनिंग की थी। अपने आप को प्रोपोगेंडा ग्रस्त करते वक्त ना ही उन्होंने उपनिवेशण का या अल्जीरिया का ज़िक्र किया, दोनो ही मुद्दे जो आतंकवादियों से ज़्यादा आद्ध्यातमिक लोगों को आकर्षित करेंगे। यह ध्यान में रखना चाहिए कि यह इतिहास ख़ूनियों को नरसंहार करने की वजह नहीं देता बलकि यह ख़ुद को यह बात याद दिला कर, कि यह लड़ाई पवित्र फ़्राँस व पिछड़े इसलाम के बीच नहीं है, उनको हराने का रास्ता दिखाता है।जैसे जैसे हम इस नरसंहार को जवाब देने की व इस समय के अनुकूल free speech की परिभाषा ढूँढने की कोशिश कर रहे हैं, वैसे वैसे हमको free speech का कुछ विषिष्ट लोगों को अपवर्जित व नियंत्रित करने के ऐतिहासिक इस्तेमाल को स्वीकार करना होगा। Free speech को एक अतुल्य कथाकथित विचार कह कर इसे एक गणतांत्रिक, फ्रांसिसी या पश्चिमी सोंच कहने से हम एक ज़यादा सम्मेलित समाज नहीं बना सकते।आर्थर एस्सरैफ ऑल सोल कॉलेज, ऑक्सफर्ड में एक इग्ज़ामिनेशन फैलो हैं।

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    Merci infiniment pour cet article qui remet enfin en question cette idée d’une France ‘pure’ qui incarne la liberté et les droits de l’Homme. La Rochefoucauld disait “les querelles ne dureraient pas longtemps si le tort n’était que d’un côté.” Je crois qu’il est extrêmement malhonnête et dangereux de refuser de voir les torts de toutes les parties dans cette querelle qui, en effet, dure depuis si longtemps… Pour apporter de l’eau au moulin d’Arthur Asseraf, j’ajouterai que l’Islam rétrograde souvent décrié en France se base tout de même sur un livre, le Coran (ou Qurʿān si l’on applique une translitération correcte), qui au VIIIème siècle déjà, alors que la France faisait ses premiers pas, encourageait ses adversaires à le critiquer en produisant des vers aussi éloquents (cf. Q. 2:23 et 11:13).

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